भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सिर पर हरी घास का गट्ठर लिए / स्वप्निल श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
सिर पर हरी घास का
गट्ठर लिए स्त्रियाँ
सड़क से गुज़र रही हैं
यह व्यस्त सड़क है
एक मिनट में यहाँ से
दर्जनों गाड़ियाँ गुज़र जाती हैं
उनके शोर के बीच
मंथर-मंथर चलती हैं स्त्रियाँ
सिर पर हरी घास का
पहाड़ लिए वे उड़ रही हैं
उनका इधर से आना
अच्छा लगता है
वे मेरे दिनों को ताज़ा और हरा
बनाए हुए हैं
गर्मी हो या बारिश
वे इधर से गुज़रती हैं
उनकी भीगी हुई देह की
एक-एक धारी दिखाई देती है
कमर में बजती है करघन
जंगल से वे घास और
प्रकृति का खिलंदड़पन लाती हैं
वे मानसून लाती हैं और
अपने टोले में बरसने के लिए
छोड़ देती हैं
शोख़ और चंचल इन स्त्रियों को
जंगल की तरफ़ से आते देख
यह अनुभव होता है कि जैसे वे
किसी नृत्य-उत्सव से लौट
रही हों
थकी हुई फिर भी अलमस्त