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सिलवटें / वसुधा कनुप्रिया
Kavita Kosh से
सिलवटें बिस्तर की
निकाल दी थी सुबह!
झूठी मुस्कान के साथ
नहीं देख सकती
तुम्हारी तरफ अब
हर सुबह....
चाय की गर्म प्याली
गर्म नाशता, और
मासूम इश्क़ मेरा
हो जाता है ठंडा
एक ही पल में
देख तुम्हारे
माथे की शिकन
वो दंभी लहजा
हिकारत भरी नज़र
वो तिरस्कार
वो तंज के
तीर ज़हरीले
और नहीं, और नहीं...
रात के अंधियारे में
ये खेल मुहब्बत का
अब बहुत हुआ,
नहीं स्वीकार
उजाले में पसरता
पल-पल का
यह अनादर !
सिलवटें, माथे की
या बिस्तर की तुम्हारे
बहुत की सीधी...
आज, उठा दर्पण
देखती हूँ स्वयं को
प्रेम से, विश्वास से!