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सिलसिला / तरुण

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बन्धु! बस, कुछ ऐसा ही रहा-
अपना तो जीवन-डगर पर चलने का सिलसिला।

ट्यूबलाइट वाला, फॉर्मूलेदार
तारकोली राजपथ छोड़ा,
सिर के आड़े-आते
झाड़-झँखाड़ों, झुरमुटों को तोड़ा-मरोड़ा;
भई, पहाड़ी संध्या के बनजारे का ठौर-ठिया-
क्या अगला, क्या पिछला!

सुनता-सा झाड़ियों की चिड़ियों का शोर,
फावड़े से लगाता हाथ का पूरा जोर,
चलता रहा, डेढ़ चावल की अपनी खिचड़ी पकाता।
झाड़ी-चट्टान काटते अपनी अलग ही पगडंडी बनाता!
अपने बैलों के गले की टुन्टुन् घंटी में मन डुलाता!
न पहाड़ से कोई शिकवा, न गड्ढे से कोई गिला-
बन्धु! बस, कुछ ऐसा ही रहा-
अपना तो जीवन-डगर पर चलने का सिलसिला।

तबीयत रही फक्कड़ाना,
रेत के टीबों में
स्वभाव रहा-लू में भी गाना!
कभी तो मैं बवण्डर-सा उठा,
कभी बिजली-सा गिरा।
कभी धनिये-करौंदों की बाड़ी से
हवा के झोंके-सा हो निकला!
बन्धु! बस, कुछ ऐसा ही रहा-
अपना तो जीवन-डगर पर चलने का सिलसिला।

1987