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बचपन में सुना था एक पैग़म्बर के बारे में
भूख से जब पेट चिपक जाता था उनका पीठ से
बाँध लेते थे पत्थर को पेट पर ताकि
पता न चले उनके फ़ाक़े का किसी को
और कुलबुलातीं बेचैन अतडि़याँ भूख से उनकी शाँत हो जाएं
ऐसे थे मेहनतकश पैग़म्बर कल के
वह ज़माना लद गया जब पैदा होते थे
पैग़म्बर
लेकिन आज भी दोहराते हैं लोग उनकी बातों को
फिलिस्तीन में
बाँध लेते हैं पत्थर को पेट पर ताकि सधा रहे शरीर उनका
धैर्य में रहे भूख, समझे ज़मीन से दर-बदरी का दर्द
जो दफ़्न हो रहे हैं ज़मीन में, बसा रहे हैं एक नया शहर
बातें कर रही हैं रूहें उनकी, सलाह मशविरा कर रहे हैं जो गुजरी पीढ़ियों से
जो नक़बे के चलते गिनते रहे थे अपने पुरखों के क़दम
जो छोड़ते घर और खेत, खदेडे जाते थे इन सब से दूर
देखते थे हसरत से मुड़ कर जली फसलों, कटे पेड़ों और ताला पड़े घरों को
मंज़र वही है मगर बदल गए हैं पैग़म्बर,
अब वह ख़ुदा से बातें नहीं करते बस पुकारते हैं उसे
भूलते नहीं हैं किसी भी तरह अपने सिलसिले को।