भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सिलसिले ख़्वाब के अश्कों से सँवरते कब हैं / फ़ारूक़ शमीम
Kavita Kosh से
सिलसिले ख़्वाब के अश्कों से सँवरते कब हैं
आज दरिया भी समुंदर में उतरते कब हैं
वक़्त इक मौज है आता है गुज़र जाता है
डूब जाते हैं जो लम्हात उभरते कब हैं
यूँ भी लगता है तिरी याद बहुत है लेकिन
ज़ख़्म ये दिल के तिरी याद से भरते कब हैं
लहर के सामने साहिल की हक़ीक़त क्या है
जिन को जीना है वो हालात से डरते कब हैं
ये अलब बात है लहजे में उदासी है ‘शमीम’
वर्ना हम दर्द का इज़हार भी करते कब हैं