भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सीख ले जो भी दाना सिखाए / हरिराज सिंह 'नूर'
Kavita Kosh से
सीख ले जो भी दाना सिखाए।
ये हमें कब ज़माना सिखाए?
ज़िन्दगी है वही ज़िन्दगी जो ,
प्यार में हमको मिटना सिखाए।
बन्दगी भी वही बन्दगी है,
जो कि बन्दे को झुकना सिखाए।
रौशनी है ऊसूलों की बेहतर,
राह में जो न थकना सिखाए।
वाक़ई है वही आदमीयत,
हम को बनना जो अदना सिखाए।
ताज़गी है वही ताज़गी जो,
‘नूर’ भरपूर खिलना सिखाए।