सीढ़ियों का शहर : शिमला / कुमार कृष्ण
यह वही जगह है
जहाँ खत्म होती है रेल की लँगड़ी दौड़
सरकारी इजाजत के बिना सजती हैं
बर्फ की दुकानें
यायावर रोटी की जगह
फेफड़ों पर बात करके
जंगल निहारने लगते हैं।
ज़मीन रफ्ता-रफ्ता कितनी तकलीफ़ के बाद
बनी होगी पहाड़
इसके बारे में सोचने का वक़्त नहीं
उनके लिए शिमला
हरियाली की सबसे खूबसूरत किताब है
जहाँ पतझड़ का नाम कहीं भी दर्ज नहीं।
वह दो सुरंगों के बीच ऐसी जगह है
जो न शहर है न गाँव
वह जंगल में आदमी के जिन्दा रहने की शहादत है।
तुम इसे यदि शहर कहना चाहते हो
तो शौक से कहो
यह सड़कों का नहीं
सीढ़ियों का शहर है
बोझ ढोते लोग सिसिफस का गीत गाते
गिनते हैं सीढ़ियाँ।
एक सुरंग बाँटती है फलों की खुशबू
दूसरी रेल की आवाज़
उस जगह पर होना
ज़मीन के रंगों के बीच
खुद को शामिल करना है
तुम यदि जल्दी सोने के आदी हो
तो इस जगह आ सकते हो
देर से जागना शहर की आदत है
यहाँ
ठण्ड में सिकुड़ा आदमी
कम्बल के पास होता है या आग के पास
तुम जिस पेड़ की तस्वीर उतारते हो
वह उसी के सूखने का इन्तजार करता है।
तुम जितनी बार यहाँ आते हो
एक बात हमेशा भूल जाते हो
पहाड़ पर खड़े जंगल का नाम शिमला है
तुम जिस पेड़ के तिनके को मुँह में दबाकर
सड़े हुए दाँत कुरेदते हो
वही पेड़ एक आदमी का घर है
जो घोड़े पर चढ़ने से पहले
तुम्हारे जूते साफ करता है
तुम शहर नापने की तैयारी में
सिर्फ जूतों की चमक देखते हो।
इस जगह
काठ के दराजों में जब भी फ़ुसफ़ुसाती हैं
दरख़्तों के ठूँठ की कहानियाँ
दारुलशफा में
नयी-नयी कुर्सियों के पीछे कत्ल होता है
एक और देवदारु
सीढ़ियों पर धूप सेंकते लोग
लौटते हैं घर
सेब की टूटी हुई पेटियाँ लेकर।