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सीता: एक नारी / चतुर्थ सर्ग / पृष्ठ 2 / प्रताप नारायण सिंह

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यद्यपि प्रथम मैं चाहती थी तातश्री के साथ ही-
जाना जनकपुर, राम के अभिषेक के उपरांत ही

वे पुष्करिणियाँ, वाटिकाएँ, खेलती जिनमें कभी
चलचित्र सी स्मृति पटल पर उभर आई थीं सभी

अमराइयों में भ्रमण की थी चाह मन में उठ रही
यात्रा जनकपुर की वृहद, थी उस समय संभव नहीं

मातृत्व सुख के साथ ही पितृत्व सुख होता जुड़ा
संतान का मुख देखने को व्यग्र नर होता बड़ा

पति-प्रेम की ऐसे समय में सहज बढ़ती तीव्रता
हर कामना अर्धांगिनी की पूर्ण करना चाहता

फिर राम तो थे श्रेष्ठतम नर; एक पत्नी व्रत लिया
उत्पन्न होने से प्रथम हर चाह को पूरा किया

देना तथा पाना यही तो नियम है संसार का
है माँग औ’ आपूर्ति ही आधार हर परिवार का

हर्षित हृदय था, वन-भ्रमण की माँग जो स्वीकृत हुई
मन में प्रकृति-सौंदर्य की गतिमान स्मृतियाँ कई

वैसे भला क्या कामना हो शेष, श्रीहरि-संधि में
है कामना का ज्वार उठता न्यूनता के अब्धि में

वे सकल जग के कामहर्ता, स्नेहमय, सम्पूर्ण हैं
संस्पर्श से ही मात्र जिनके जीव होता पूर्ण है