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सीता: एक नारी / पंचम सर्ग / पृष्ठ 7 / प्रताप नारायण सिंह

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रत साधना में अति कठिन ही अनवरत श्रीराम हैं
किंचित नहीं सुख भोग, उनका राज्य पालन काम है

वनवास की पहले तपस्या, आज राजा-धर्म की
मन तप्त, पर अवहेलना करते नहीं निज कर्म की

कोशल महल तो राज्य कर्मी, परिजनों से है भरा
सिय के बिना निर्जन लगे पर राम को अम्बर, धरा

कर्तव्य से बँधकर हृदय में ही दबाए प्रीति को
अति वेदना सहकर निभाए राम रघुकुल-रीति को

सुत मोह था, पर तात ने भी धर्म का पालन किया
फिर त्याग कर निज प्राण, अपने प्रेम का परिचय दिया

जब नीति आकर प्रीति के सम्मुख खड़ी होती कभी
है श्रेष्ठ चुनना नीति को कहतीं यही श्रुतियाँ सभी

हैं रो रहे श्रीराम उनका हृदय दुःख से फट रहा
अनुमान करना कठिन, जो हिय मध्य उनके घट रहा

साकार तो हैं राम पर क्रन्दन नहीं साकार है
हिय-रक्त बहता नेत्र से, उसका कहाँ आकार है

हो राम की पूरी तपस्या, दुःख तुम्हारा दूर हो
विजयी बने फिर सत, असत सबके हृदय का चूर हो

कोशल जनो को एक दिन अपराध निज स्वीकार हो
होगा उचित उस काल तक तुम अवध से बाहर रहो