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सीता: एक नारी / षष्टम सर्ग / पृष्ठ 1 / प्रताप नारायण सिंह

कितने युगों से अनवरत है सृष्टि-क्रम चलता रहा
इस काल के अठखेल में जीवन सतत पलता रहा

गतिमान प्रतिक्षण समय-रथ, पल भर कभी रुकता नहीं
सुख और दुःख भी मनुज-जीवन-राह में टिकता नहीं

उल्लास के दिन बीतते, कटती दुःखों की यामिनी
होता अमावस तो कभी, भू पर बिखरती चाँदनी

घनघोर काली रात का अब कलुष है कम हो गया
संलग्न जीवन-ग्रन्थ में मेरे हुआ पन्ना नया

आश्रम बनी तपभूमि मेरी, पुत्र पालन साधना
दो पुत्र ओजस्वी बहुत, पूरी हुई हर कामना

यह काल सीता के लिए मातृत्व का उत्कर्ष है
विच्छोह-दुःख के साथ ही सुत प्राप्ति का अब हर्ष है

गर्वित हृदय, भावी अवध सम्राट की माता बनी
है विरल अब तो हो गई, पीड़ा कभी जो थी घनी

दात्री बनी हूँ पार कर दुःख दग्ध पारावार को
उपकृत करुँगी पुत्र देकर राम के परिवार को

निज पुत्र की भी सुधि नहीं ली राम ने अचरज बड़ा
सुत प्राप्ति का तप, यज्ञ जो उनको नहीं करना पड़ा

रघुवंश को वंशज मिले यह जतन बस मैंने किया
अपमान का प्रतिदान वारिस जन्म कर मैंने दिया

इतने बरस के बाद भी मन में प्रतीक्षा है कहीं
श्रीराम को तो किन्तु कोई मोह सुत का है नहीं