(धुन: बट गँवनी)
रात भर सोये, रामा!
धरती की गोद में,-
सीने से कान लगाये!
जोर-शोरवाली  दुनिया  --  डूब चली   धीमे-धीमे
तस्वीरोंवाली  दुनियाँ – उभर माटी  के जी  में-
-कागज के टीले, उनपर
बैठे  लोभी   हरकारे,
दल  दल हाथ हजारों
हर टीले को ललकारें!
सोने का  शेर गरजे
टीलों की ओट में,
-बारूदी बू मंहकाये!
पैठचुकी जब हियरा में, धक्-धक् धरती के दिल की,
-गूँजती चली बट गंवली घर-घर खोयी मंजिल की,
-समय का समन्दर खारा
रचे आंसुओं से मोती,
यहाँ पसीने की नदियाँ
किश्तियाँ रतन की ढोतीं!
जल-डाकू  लूट लेते
घेरकर गिरोह में,---
माँझी भी लौट न पाये!
सिंहासन से जुड़ नाची चाँदी की चाँदनी भी
धरती बदली कारा में कैद हुई स्वामिनी भी
तीसरे पहर का पहरू-
बोलता मरम की बोली-
‘पहिल पहरमें दिवाली,
चौथे पहर में होली!’
संझा की लाली, रामा
धनकेगी भोर में,--
जंगल पराती गाये!