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सीमांत पर / अज्ञेय

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चेहर हो गये हैं यन्त्र सभ्य।
मँजे चमकते हैं
बोल कर छिपाते हैं।
पर हाथ अभी वनैले हैं
उन के गट्टे
चुप भी सच सब बताते हैं।
बस कभी-परम दुर्लभ!-
आँसू : वे ही बचे हैं जो कभी गाते हैं।

बर्लिन, मार्च, 1976

जर्मन प्रवास में लिखी गयी यह कविता पूर्वी और पश्चिमी बर्लिन को अलग करने वाले अस्त्र-सज्जित ‘आधुनिक’ सीमान्त के एक ठिये पर लिखी गयी थी जहाँ सीमान्त पार करने वालों की पड़ताल और तलाशी आदि की व्यवस्था है।