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सुंदर भी वैसे ही नष्ट करता है / गिरिराज किराडू
Kavita Kosh से
शिराओं पे तीखी धार जगाती है ख़ून में उन्माद आँखें मूंदता हूँ
और अब यह मेरे मरने के बाद की पृथ्वी है
उतनी ही सुंदर उतनी ही असुंदर
यह मेरे न रहने के बाद होती हुई बारिश है
उतना ही खिलाती हुई उतना ही ढहाती हुई
यह मेरे न रहने के बाद मरती हुई दुनिया है
उतनी ही सम्मोहक उतनी ही अवसन्न
ख़ून धार से मिलने को ऐसे उद्धत जैसे मैं तुमसे
आँखें खोलता हूँ पर वे नहीं खुलतीं
सुंदर भी वैसे ही नष्ट करता है जैसे कि वह जो नहीं है सुंदर