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सुकामना / आलोक कुमार मिश्रा

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रहना चाहता हूँ उस शहर में
जहाँ साइकिल देखकर
रुक जाती हों मोटर-गाड़ियाँ अदब से।
प्रेमी जोड़ों को देखकर
मुस्कुरा उठते हों बूढ़े और भर जाते हों
किसी मीठी स्मृति के गंध से।

रहना चाहता हूँ उस शहर में
जहाँ गरीब से गरीब की आँखों में भी
झलकती हो दो जून के रोटी की आश्वस्ति।
जहाँ अमीर भरे हों कृतज्ञता से
खरीदते हुए सुख-सुविधाएँ
किसान और धरती के प्रति।

उस शहर में बसना चाहता हूँ
जहाँ मयस्सर हो कम से कम इतना एकांत
कि कवि कविताएँ लिख सकें
और रो सके कोई भी मनभर।
जहाँ बदतमीज़ी न हो
हो भी तो कोई न कोई रोक सके हर बार आगे बढ़कर।

बसना चाहता हूँ ऐसे शहर में
जहाँ इंसान की पहचान
महज़ उसके इंसान होने से हो
धर्म की आयतें श्लोक वाणी सब
ईश्वर की नहीं आदमी की बाँह गहती हों
जहाँ मृत्यु शालीन हो और ज़िदगी किलकती हो।

कोई बताए,
कहाँ है ये शहर?