जलजला ही तो था जो लील गया
नभ से पाताल तक पर
पर मौत में भी
था एक सुकून ना गरदन उतरी
नफरत के खंजर से ना जले थे तुम बंद पिंजरे में
तमाशा बन कर या कि
कतार बद्ध होकर
ठांय ठांय से
धराशायी होते ना अपनी कब्र
खुदवा कर
धकेले गये
मरे अधमरे तुम ओ हिमालय के पूतों
भयावह मौत मे भी
इतना तो सुकून
था ना तुमको