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सुख / अमरेन्द्र
Kavita Kosh से
लाल-लाल फूलों को अपने चारों ओर गिरा कर
देख रहा है मुँदे नयन से सेमल संन्यासी-सा
या चैपड़ पर सजा-सजाया बिखर गया है पाशा
चला गया है कौन यहाँ से आँखें घुमा-फिरा कर
इस एकान्त में एक प्रश्न-सा वृक्ष और मैं केवल
मैं सेमल को देखूं, मुझको देख रहा है सेमल ।
चाहे जितनी खुशी समेटो साथ कहाँ है देती
कोषों से रूई बन-बन कर आती उड़ जाती है
अपनी चुटकी में आयु यह पकड़ कहाँ पाती है
खिले फूल डाली पर आखिर पत्थर पर की खेती
रौंदे जाते पैरों से सेमल के फूल अरुण हैं
क्या प्रारब्ध-नियति काल के उठे चरण के गुण हैं ।
रंगों का, रस का हुलास यह नभ का इन्द्रधनुष है
अभी-अभी उंगुली पर उतरा, अभी-अभी ही फुस है ।