भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सुख / सरोज परमार
Kavita Kosh से
चिन्दी-चिन्दी फट जाने में
टुकड़े-टुकड़े बँट जाने में
कैसे पा जाते हैं सुख?
चिथड़े की मानिद
अंतिम दम तक नुच जाना
हर रेशे का चुस जाना
ही होता होगा शायद सुख।
भुरभुरे घास के तिनके-सा
गिर जाना उड़ जाना,बिछ जाना
ही है शायद सुख।
ज़र्रा-ज़र्रा बिखर जाने मेम
सोंधी माटी में मिल जाने में
किंचित पा जाते हैं सुख।
दुख के पाँव लम्बे लगे
सुख की चादर छोटी
पैर सिकोड़ कर सोना ही
है मुझ जैसों का सुख।