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सुगना मुण्डा की बेटी-2 / अनुज लुगुन

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सुगना मुण्डा की बेटी

रीडा —
हमें ऐतिहासिक, दार्शनिक
सभी पहलुओं पर विचार करना होगा बिरसी!
हमारा कोई भी अरणनीतिक और अव्यवस्थित क़दम
शहादतों की ग़लत व्याख्या प्रस्तुत करेगा
संघर्ष और शहादतों का मान
रणनीति और अनुशासन से ही महान् होता है’’

बिरसी —
‘‘आबा!
जितनी बड़ी चुनौती हमारे बाहर है
उतनी ही बड़ी चुनौती हमारे अन्दर भी है?

रीडा —
‘‘हाँ, बिरसी
बाहर और अन्दर का द्वन्द्व ही
बेहतर रास्ता तय करता है
हमें वस्तुगत परिस्थितियों के साथ ही
आन्तरिक संरचना और
आत्मगत भावनाओं का गहराई से विश्लेषण करना होगा
एक बाघ बाहर है तो एक हमारे अन्दर भी है
तभी तो चानर-बानर होते हैं, उलट्बग्घा होते हैं
आदमी ही बाघ बनते हैं, ‘कुनुईल’ होते हैं
कहीं वह अनुशासित है, तो कहीं छुट्टा घूम रहा है’’

बिरसी —
‘‘कहते हैं रोंगों बूढ़ा भी कुनुईल होता है
उलट्बग्घा बनता है
और कोई शिकार नहीं मिला तो वह
अपनी ही दो बेटियों को खा गया?’’

रीडा —
‘‘हम यह प्रामाणिकता के साथ नहीं कह सकते कि
रोंगों उलट्बग्घा बनता था
हाँ, यह स्वीकार्य है कि
हमारे बीच से ही उलट्बग्घा बनते हैं
आदमी ही बाघ बनते हैं, ‘कुनुईल’ होते हैं
हमारे ‘मुण्डा’ का बेटा उलट्बग्घा है
उसने कई लोगों को खाया है
सबसे पहले उसने
उन लोगों की ज़मीन की रसीद अपने नाम लिखवाई
जो उनके यहाँ अपनी ज़मीन बन्धक रख गए थे
उसने ‘पड़हा’ की बातों को
अपने धन के दम्भ से नहीं माना
और अपनी ख़ानदानी बेटियों की ज़मीन हड़प ली
यह हज़ारों सालों से हमारे पुरखों द्वारा की गई
दार्शनिक अभिव्यक्ति के ख़िलाफ़ था
और यह सम्भव हुआ था
अन्दर के बाघ का बाहरी बाघ के गठबन्धन से
सूई की नोंक की तरह ही सही
ये विषाणु हमारे बीच पसर रहे हैं
हमारी अस्मिता और अस्तित्व के लिए
सबसे घातक आन्तरिक कारक’’

बिरसी —
‘‘यानी इस हत्याकाण्ड के उत्स में
अतीत है, इतिहास है, दर्शन है और विज्ञान भी है’’

रीडा —
‘‘हाँ, और यह इस धरती पर
केवल बीजापुर में घटित घटना नहीं है
बीजापुर केवल एक रूपक है
दण्डकारण्य केवल एक रूपक है
धरती पर जहाँ भी
धरती अपने सम्पूर्ण परिजनों के साथ है
जहाँ भी तितली फूलों पर
पँछी अपने पेड़ों पर
मछली अपनी नदियों में
हिरन अपने जँगल में हैं
वहाँ-वहाँ सहजीविता है
और वहाँ निजी लाभ के लिए
मेहनत के पसीने और सौन्दर्य पर
वर्चस्व का प्रसार
दार्शनिक द्वन्द्व का कारक है’’

बिरसी —
‘‘अतीत के अधूरे जवाब से
पैदा हुए सवाल हैं ये...?
अविचारणीय मानकर छोड़ दिए गए
विचारणीय तत्व हैं ये...?
मेहनत के पसीने और सौन्दर्य पर
प्रभुत्व की सभ्यता के तत्व
और उसके प्रभुत्व से हीन
उसकी सामूहिकता की सभ्यता के तत्वों का दार्शनिक द्वन्द्व है...?’’

रीडा —
‘‘हाँ, ये सवाल अब तक कथित सभ्य
और मानवीय लोगों के लिए विचारणीय नहीं थे
उनके विचार के केन्द्र में नहीं थी सहजीविता
उनके लिए यह जीवन
मनुष्य केन्द्रित था
जबकि यह धरती केवल मनुष्यों की नहीं है,

इसका उत्स है आदिमता की वह अवस्था
जहाँ सबसे पहले
मेहनत और उसकी उपज की
सामूहिकता का त्याग किया गया
और उसके शोषण को
सभ्यता और कलाओं का उत्स माना गया
निजी सम्पत्ति और अतिरिक्त की लालसा में
समानान्तर चल रही सामूहिकता की दुनिया का
बहिष्कार और उपहास किया गया,

बाघ का जन्म ऐसे ही हुआ है
ज्यों-ज्यों अतिरिक्त की लालसा बढ़ेगी
उलट्बग्घों की सँख्या बढ़ेगी
और विलुप्त होंगे सहजीवी बाघ

वह आदमख़ोर अप्राकृत बाघ,
इतिहास में विजेता है
वह भगवान भी है, देवपुत्र भी है
उसके लिए हम पशुवत् हैं
और बाघ एक सम्मानजनक प्रतीक
वह बाघ है, बाघ का पालक है,
जिसे तुम चार पैर
एक पूँछ और मूँछों से पहचान नहीं सकती
वह हमारे सेंदेरा-विधान से भी
कई गुणा चालाक और शातिर है
वह अपने पोथियों और कानूनों से
वैसी ही लुभावनी बातें करता है
जैसे शिकार को फाँसने के लिए चारा डाला जाता है’’

बिरसी —
‘‘आबा, तो क्या यह अब भी जीवित है
इतिहास और अतीत का हिंसक प्रतिनिधि!
उसी अतीत में इसे खदेड़ नहीं दिया गया हमेशा के लिए...?’’

रीडा —
‘‘नहीं बिरसी!
लड़ाइयाँ कभी ख़त्म नहीं होतीं
लक्षित लक्ष्य के बाद भी
संघर्ष जारी रहता है
जब से इस बाघ का अस्तित्व है
तब से उससे संघर्ष है
बावजूद वह अपराजेय बना हुआ है
और इसकी वजह
मनुष्य की ख़ुद की कोमल कमज़ोरियाँ हैं
तत्काल लाभ ने
हमेशा इस धरती का नाश ही किया है,

तुम सुन सकती हो
उन गीतों को, उन कथाओं को
जो तुमने सुना होगा अपने स्वजनों से
उन्हीं गीतों में मौज़ूद है
बाघ से द्वन्द्व का सकारात्मक प्रमाण
उन प्रमाणों की व्याख्या ही
एक नया अध्याय प्रस्तुत करेगा,

सुनो गीत,
आओ गाओ गीत
गीत ही हैं प्रतिमान बेहतर मनुष्यता के’’

और सुनती है बिरसी
अन्धेरे में रोशनी का गीत
देखती है वह स्वयं को गाती हुई
सुनती है वह दूसरों को गाती हुई
वह स्वयं उसमें शामिल है और बाहर भी

सामूहिक ध्वनियों से गुंजायमान है परिवेश —
‘‘माँ, मुझे दो तीर-धनुष
माँ, मुझे चाहिए बलुआ फरसा
इस बरस सरहुल तो
इस बरस जदुर तो
लड़ाई के मैदान में होगा
संघर्ष के क्षेत्र में होगा’’

कुछ अन्तराल के बाद फिर से
दूसरे गीत की सामूहिक ध्वनि उभरी
‘‘हे चितरी चरई,
हे असकल पक्षी,
जंगल तो जल रहा है
पहाड़ तो धधक रहे हैं
हम दाना चुगने कहाँ जाएँगे
हम गाना गाने कहाँ जाएँगे’’

बिरसी —
‘‘आबा, आबा!
यह तो गीतिः ओड़ाः के युवकों का गीत है
संगी युवतियों का स्वर है
लेकिन ये गीतिः ओड़ाः में केन्द्रा और टूईला
की जगह बलुआ फरसा की बात क्यों कर रहे हैं
सरहुल का त्योहार लड़ाई के मैदान में मनाने की तैयारी है
जदुर नाच संघर्ष के क्षेत्र में नाचने की बात कही जा रही है?’’

रीडा —
‘‘हाँ, बिरसी
यह गीतिः ओड़ाः के युवकों का गीत है
गीतिः ओड़ाः की युवतियों का स्वर है
यही स्वर है धुमकुड़िया का
यही ताल है पेल्लो एड्पा का
यही राग है घोटुल का
ये गोट कभी अनैतिक रंग-रस के नहीं रहे हैं
यह पाठशाला रही है युवाओं के लिए
सम्पूर्ण ज्ञान का प्रयोगशाला रहे हैं ये
यहीं सरहुल के गीत तैयार होते हैं
यहीं सेंदेरा के लिए
तीरों में ज़हर भी बुझाया जाता है
ये पड़हा पंचायत की नर्सरी रही हैं
न्याय का अभ्यास है यह
हमारे गणतन्त्र के ज़रूरी खूँटे हैं ये’’

बिरसी —
‘‘ओह...! तो इन खूँटों से दूर होकर ही
हमारे लोग उलट्बग्घा बन रहे हैं
कुनुईल जन्म ले रहे हैं
इन खूँटों के कमज़ोर होने से ही
बाघ मज़बूत हुए हैं
उनकी संख्या बढ़ रही है...’’

अधीरता के साथ
वह फिर कहती है —
‘ज्ञान के विस्तार के साथ ही
संघर्ष का क्षेत्र भी बढ़ गया है
अब मैं जाती हूँ लोगों के बीच
गाँव-गाँव डुगडुगी बजेगी
अस्मिता और आज़ादी का सन्दर्भ
अब वृहद् परिप्रेक्ष्य में होगा,

आबा! मैं जाती हूँ
मैं जोहार करती हूँ...’’

रीडा —
‘‘थोड़ा और रुको बिरसी
अन्तिम निर्णय लेने से पहले तक
पूरे धैर्य के साथ
सभी तत्वों का विश्लेषण होना चाहिए,

जाते-जाते
इस बात का
सबसे ज़्यादा ध्यान रखना है
कि यह समय अब पहले से ज़्यादा निर्णायक है
इसलिए भयावह भी है
बहुत मुश्किल होगा पहचानना
कि बाघ कौन है?
जिसे तुम अपना भाई मानती हो
जो तुम्हारा सहोदर है
जो तुम्हारे बिरादरी भी हैं
उसे भी ग़ौर से परखो,

तुम देख सकती हो —
देखो...देखो!
वहाँ जो केन्द्र में बैठा है
वह तुम्हारा ही तो भाई है
जो तुम्हारे ही
अधिकार और पहचान की बात करता है
देखो, उसका रूप बदल रहा है
उसकी अँगुलियाँ नाख़ूनों में
हथेलियाँ ख़ूनी पंजों में बदल रहे हैं
उसके दाँत बाहर की ओर निकल आए हैं नुकीले
आँखें अंगारे की तरह हैं
वह आदमी है लेकिन बाघ हो रहा है
वह चानर-बानर है
वह उलट्बग्घा है
वह कुनुईल है
देखो, बुनुम में वह अपनी देह रगड़ रहा है
ओह... बिरसी...!
तुम किस-किस के लिए अपने तीर सँभाल कर रखोगी...?’’

मौन अन्तराल के बाद
सफ़ेद आभा से युक्त
उस आकृति से अन्तिम आवाज़ आती है —
‘‘और दूसरी ज़रूरी बात है
सबसे पुराने समय के
सबसे पुराने और सबसे कम बचे लोग हैं हम
हमें तादाद के लिए नहीं
सहजीविता के लिए
अपने सहधर्मियों की खोज करनी होगी,

अब तुम जाओ,
जाओ बिरसी मैं भी अब विदा लेता हूँ
हज़ार-हज़ार वर्षों के इतिहास का गवाह
उसका जीवित चरित्र
घायल, आहत और क्षुब्ध
लेकिन मुझे उम्मीद है
और उम्मीद से ही जीवित रहूँगा
आनेवाली सदियों तक,

जाओ, बन्दई की अमावस्या वाली रात
जब गुड़ी परीक्षा का दिन होगा
तुम डोडे वैद्य से मिलो
वह तुम्हें पुरखों का और अधिक ज्ञान सौंपेगा
तुम पहले से ज़्यादा ज़िम्मेदार और मज़बूत होगी
तुम और तुम्हारे साथी
महान विरासत के कर्णधार होंगे
जब तक वह सहजीवी ज्ञान है, वह जीवन है,
तभी तक आगामी लड़ाई की सार्थकता है
उसके बिना फिर से सबकुछ
कुरूप होगा, अराजक होगा,

जाओ, जाओ बिरसी!
पुरखा सुगना मुण्डा की
काल भेदी जीवित बेटी!
हज़ारों वर्षों के श्रमशील विरासत की वारिस!
हाशिये की रूपक!
सभ्यताओं की समीक्षक!
तुम्हें जोहार! तुम्हें जोहार! तुम्हें जोहार!!’’

...और अचानक अवचेतन से
जाग उठी बिरसी
हाँफने लगी...
कुछ कौतूहल में खोजने लगी...
क्या यह सपना था...!
या, यह साक्षात्कार था पुरखों का, खूट का...?
या, यह बेचैनी का चरम था
जिसमें बन रही थीं छवियाँ
आदमख़ोरों को
सभ्यता की सूची से बाहर कर देने के लिए?

रात पसर रही थी उसके चारों ओर
और नींद की जगह ले ली थीं
दण्डकारण्य में उभर रही आकृतियों ने।