सुधरने की तो कम आशा थी तुमसे शेखजी फिर भी / कांतिमोहन 'सोज़'
सुधरने की तो कम आशा थी तुमसे शेख़जी फिर भी ।
किसी उम्मीद पर सुनते रहे अच्छी-बुरी फिर भी ।।
ख़ुदा जाने तुम्हारी खिल्वतों<ref>एकान्त</ref> को जिसने देखा है
अगरचे मयकशों के हाथ से तुमने न पी फिर भी ।
ज़ईफ़ी<ref>बुढ़ापा</ref> का लबादा ओढ़कर बैठा था वां नासेह<ref>उपदेशक</ref>
अगरचे शोलारूख<ref>सुर्ख़ गालों वाली</ref> से लग गया था उसका जी फिर भी ।
बदलते वक़्त के साए में वो बदला न हम बदले
लिहाज़ा छेड़ अपनी शेख़ से चलती रही फिर भी ।
न था ज़ाहिद का कोई ज़िक्र तक मर्दुमशुमारी<ref>जनगणना</ref> में
अगरचे ख़ून में गर्मी थी तन में जान थी फिर भी ।
तेरे कहने से हमने छोड़ दी पर ये हक़ीक़त है
अभी तक सोचते हैं मय ग़ज़ब की चीज़ थी फिर भी ।
लगाई आग ही उसने वतन का रहनुमा बनकर
सज़ा उसके किए की सोज़ को भरना पड़ी फिर भी ।।