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सुनसान डगर / शिवदेव शर्मा 'पथिक'

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न जानें क्यों मुसाफ़िर को डगर सुनसान लगती है?
यहाँ गहराईयाँ इतनी, लहर अनजान लगती है!

उड़ाकर धूल राही ने, जगाकर पाँव से शोले,
पुकारा जोर से-'मंज़िल' ! मगर बहरा जगत बोले ?
कराहा आह ! मुझको राह का सुनसान खलता है,
अरे इन्सान ! तुमको स्वयं ही इन्सान छलता है.

बहुत इन्सान मिलते हैं सड़क वीरान लगती है,
न जानें क्यों मुसाफ़िर को डगर सुनसान लगती है?

न जाने क्यों हृदय कोमल सजाये प्यार बैठा है?
बहुत गुब्बार है मन में, नयन में ज्वार बैठा है!
कहाँ संसार सपनों का कहाँ वो तार कम्पित है?
कि आनत ग्रीष्म-पत्रों पर 'नया संसार' अंकित है.

जलन की वेदनाओं से बहुत पहिचान लगती है,
न जानें क्यों मुसाफ़िर को डगर सुनसान लगती है?

रखे आशा कहाँ राही, निराशा के बवंडर में,
पनप कर ज्ञान के अंकुर, न फैले निठुर वंजर में !
बुझे जब दीप तो आँधी मनाने भी नहीं आयी,
जले जब दीप तो आँधी क्षितिज के छोर तक छायी.

दिशा के छोर में सिमटी मधुर मुस्कान लगती है,
न जानें क्यों मुसाफ़िर को डगर सुनसान लगती है?

न जाने क्यों कभी अपने, पराये से नज़र आते,
न कोई आज तक बोला, कटा दो रात कुछ गाके.
बहुत धीरज समेटे हैं अभी तक बाँह फैली है,
कहाँ ठहरें ? यहाँ तो धूप से ही छाँह मैली है!

थकी है ज़िन्दगी, दम तोड़ती सी तान लगती है,
न जानें क्यों मुसाफ़िर को डगर सुनसान लगती है?

प्रगति चीखी- 'तनिक ठहरो', तो आँधी ने कहा- 'बल है' ?
मुसाफ़िर ने कहा-'इतना अधिक इन्सान निर्बल है?
सफ़र है ज़िन्दगी जो आँधियों में भी मचलती है,
अँधेरा जब बहुत बढ़ता, हृदय की ज्योति जलती है !

हृदय का दीप जलने दे- धरा नादान लगती है,
न जानें क्यों मुसाफ़िर को डगर सुनसान लगती है?

मुसाफ़िर बढ़ रहा देखें- कहीं भगवान भी बोले,
न बोला आदमी तो राह की चट्टान भी बोले!
कहे पथ पर कोई आकर- 'बटोही ! पंथ प्यारा हो',
भले साँसें उखड़ जायें, बढ़ो का एक नारा हो.

यहाँ मंज़िल बताने को खड़ी चट्टान लगती है,
न जानें क्यों मुसाफ़िर को डगर सुनसान लगती है!

डगर सुनसान लगती है - बटोही तुम बढ़े जाओ,
सड़क वीरान लगती है - बढ़े जाओ न घबराओ!
जो चलता आग में जलता, उसे वरदान मिलता है,
कभी अनजान मंज़िल को नया मेहमान मिलता है!

हवा तूफ़ान की करती हुई आह्वान लगती है,
न जानें क्यों मुसाफ़िर को डगर सुनसान लगती है?

उठाले लाश ओ राही! किसी विश्वास के घर की,
बनाकर अर्थियां चल दे, यहाँ से आज पतझड़ की !
जिये विश्वास, पतझड़ की नया जीवन कहीं पाये,
बढ़ो तुम क्योंकि सम्भव है यहीं मंज़िल चली आये !

सजग यह चेतना गति की, लिये अभिमान लगती है,
न जानें क्यों मुसाफ़िर को डगर सुनसान लगती है !