भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सुनामी / अमरजीत कौंके
Kavita Kosh से
वह तो अन्नदाता था
हशारों, लाखों जानों का पालनहार
कोई भी उसके पास गया
खाली हाथ वापिस नहीं था आता
लाखों जानों के लिए
वह मछुआरों के पास
ढेरों के ढेर मछलिआँ पहुँचाता
कितनी सीपियां, मोती, घोंघे तो
वह खुद ही ला कर
किनारों पर बिछाता
वह इतना क्रोधवान तो नहीं था
कि लाखों जानों की
कब्रगाह बन गया
कहीं इस में
हमारी कोई खता तो नहीं
जो उसने हमें दी
हमारी ही गलती की
सज़ा तो नहीं
किनारों से बाहर आने के लिए
हमने ही उसे मजबूर किया है
वह इतना क्रोधवान तो नहीं था
कि लाखों जानों की
कब्रगाह बन गया।