सुनो ! / अदनान कफ़ील दरवेश
ऐ मेरी रूह !
तुम हो अगर यहीं कहीं तो सुनो !
इस लगातार होती अजीब खिट-पिट को
जैसे कोई बढ़ई सुधार रहा हो
दरवाज़े की चूलें आधी रात
सुनो, उन क़दमों की बाज़गश्त
जिनके कच्चे निशान
मेढ़ों में खो गए…
ध्यान से सुनो किसी के घिसटने की आवाज़
सुनो, फाटक की चुर-मुर
और ज़ंजीरों की उठा-पटक
देर रात सिकड़ी का डोलना सुनो
ध्यान से सुनो ये चिटकने और भसकने की आवाज़
सुनो ये खुस-फुस
ये अजीब-सी सरसराहट
सुनो, ये गुदबुद-सी डूबने की आवाज़
सुनो, सान चढ़ते हथियार की आवाज़
सुनो, गर्म लोहे के ठंडे पानी में उतरने की ये आवाज़
सुनो ! तुम्हें सुनना पड़ेगा
दूर जाते टापों की इस आवाज़ को
सुनो, भयभीत नब्ज़ों में उतरने वाली
सलाख़ों की ये आवाज़
सुनो, किसी के दम घुटने की ये आवाज़
सुनो, डूबते दिल की टूटती-सी आवाज़
सुनो, ये किसी के सिहरने की आवाज़
सुनो, उस आवाज़ को जो अब ख़ामोश हो गई
सुनो, उस आवाज़ को जो उठ भी नहीं पाती
सुनो, उस आवाज़ को जो लहू में बजती है
सुनो, इससे पहले कि छुप जाएँ ये सब आवाज़ें
किसी जुलूस के भीषण शोर में ।