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सुनो पुरुष! / अंकिता जैन

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सुनो पुरुष,
ए मेरे दौर के लेखक

क्या लिखा है तुमने कभी
गोदी का एक पैर हिलाते हुए?
एक हाथ बच्चे के सर के नीचे फंसा उसे छाती से दूध पिलाते,
दूसरे हाथ से चलाते हुए?

क्या लिखा है तुमने कभी
कोई आधा ख़याल
जिसे पूरा करने से पहले ही रोया हो तुम्हारा बच्चा
और रुकी हो तुम्हारी क़लम
जिसे मिनिट और फिर घंटों तक रखा हो तुमने अधपका
क्योंकि तुम देख नहीं सकते बच्चे को रोता हुआ
न ही ख़याल को खोता हुआ,
क्या किया है तुमने कोई अधूरा ख़याल पूरा बच्चे के रुदन के साथ?

क्या लिखा है तुमने कभी
बच्चे को नहलाते, तेल लगाते
खाना खिलाते, खेल दिखाते
रसोई में खड़े होकर
एक हाथ से मसाले मिलाते
दूसरे हाथ से करछी हिलाते
मेहमानों को पानी पिलाते,
झाड़ू लगाते, चाय बनाते
और पूजा घर में सुबह-सबेरे दिया जलाते?

क्या लिखा है तुमने कभी
इस डर के साथ कि बहु क्या लिख रही है?
लैपटॉप-मोबाइल पर चलती उसकी उंगलियां दुनिया से क्या कह रही हैं?
कहीं वह घर और परंपरा की बुराई तो नहीं लिखती
थोड़ा लगाम कसकर रखो, दुनिया की शह से लड़कियाँ बहुत हैं अकड़ती

क्या लिखा है तुमने कभी संस्कारों का घूंघट ओढ़े,
मर्यादाओं को बिना तोड़े
रात के अंधेरे में छुपते-छुपाते हुए?

नहीं, तुमने नहीं लिखा होगा
तुम लिखते हो ऑफिस की डेस्क पर
घर में अपनी मेज पर
अपने समय में
जो सिर्फ तुम्हारा है
न तुम्हारी पत्नी का, न तुम्हारे बच्चे का
तुम लिखते हो तुम्हारे समय में क़लम चलाते हुए।
और हमें लिखना पड़ता है 'सबके' समय से थोड़ा-थोड़ा समय चुराते हुए।


हम चुन सकते हैं ना लिखना भी
जैसे बहुतों ने चुना होगा
हम चुन सकते हैं सिर्फ माँ, पत्नी, बहु और बेटी बने रहना भी,
हम चुन सकते हैं ऑफिस और घर में वर्कर बने रहना भी
हम चुन सकते बच्चों को बड़ा कर हॉस्टल भेजने तक का इंतज़ार अपने लिखने के लिए
हम चुन सकते हैं 'अपने' लिए अपने समय का खाली हो जाना भी
मगर हम नहीं चुनेंगे
क्योंकि अब हमने टुकड़ों-टुकड़ों में ही सही
लिखना सीख लिया है
अधूरे ख़यालों को मिनिट, दिन, महीनों तक भी मरने न देना सीख लिया है
तुम्हारे जीवन को चलाते हुए अपने जीवन को जीना सीख लिया है।