भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सुनो बालिके! सुनो / सरिता स्निग्ध ज्योत्स्ना

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सुनो बालिके,सुनो
अभी तो यह पहला व्यूह था
बधाई तुम्हें कि इस दुनिया में
तुम आ ही गई
पर इस खुशी को संभालने के लिए
सीखने होंगे कई नए पाठ
पार करना होगा समूचा चक्रव्यूह

चलो अच्छा है
अभी तुम्हारे खाने-खेलने के दिन हैं
तुम बहुत खुश लग रही हो
अपने रंग-बिरंगे किचेन सेट में
दाल-भात-रोटी
पिज़्ज़ा-बर्गर पकाकर
मम्मी-पापा को परोसकर
पर रूको इसके आगे भी
कई-कई मुकाम हैं
तुम खेलो कमरे से भी निकलकर बाहर
रखो रनों का हिसाब
चोट करो ‘शटल ‘ पर संतुलन के साथ
घरेलू बिल्ली से ही प्यार मत बढ़ाओ
सीखो शेरनी से दहाड़
पूरी दुनिया है सियासत
बिछी शतरंज की बिसात
चलता रहता है
शह और मात का खेल दिन-रात

अरे बालिके
मत रचाओ गुड्डे-गुड़ियों का ब्याह
मत बुनो परीलोक का छद्म संसार
अपनी मम्मियों और दादियों की तरह
कि सफेद घोड़े पर होकर सवार
आएगा कोई सुंदर राजकुमार
ले जाएगा तुम्हें सात समंदर पार
देगा तुम्हें बस सुख हज़ार


हाँ, बालिके
यह समय सपनों की असंख्य कब्रों से
निकल आने का है
‘प्रज्ञा ‘ तुम्हारे हाथों में क़ैद जादू की छड़ी है
उसे ही साधना और घुमाना सीखो
तब कर सकोगी झूठ-फरेब और सच में फर्क
तुम्हारी हुकूमत होगी
ज़मीन से आसमान तक
और हाँ,जब तक सीख न लो
अपने पैरों पर ठीक से चलना
अपने पैरों को
बैसाखियों का गहना मत पहनने देना
इंकार करने की हिम्मत रखना
सुंदर गहनों के आएँगे प्रलोभन
मगर तभी पहनना जब बोझ न लगे
उतने ही पहनना
जितना सहयोगी बने
तुम्हारे रूप को निखारने में
ज़िंदगी को सँवारने में
उन्हें बेड़ियाँ कभी मत बनने देना

सुनो बालिके
अंतिम व्यूह पार करने तक
साथ रखने होंगे कई ‘ हथियार
उम्मीद है अपने अपार हौसले से तुम
जीत लोगी यह महासमर
सहस्रों अभिमन्यु पैदा होंगे
जीवित लौटकर आएँगे घर घर
गाएँगे सब मिलकर
“जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी ” का
बेहद खूबसूरत मंत्र!