भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सुनो बेटी / आलोक कुमार मिश्रा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सुनो, बेटी !
उसी दिन भाग जाना
छोड़कर मुझे और मेरा घर द्वार
जिस दिन
मुझमें यानी तुम्हारे पिता में घुसकर बैठ जाए
संस्कृति रक्षक पहरेदार
कोई परिवार रूपी जर्जर साम्राज्य का राजा
या दासियों का सामन्त

जिस दिन दिशा दिखाते दिखाते
मैं ख़ुद ही बन जाऊँ दिशा
रास्ता बदल लेना

जिस दिन वर्तमान होते होते
बन जाऊं भविष्य
विद्रोह कर देना

हालाँकि मुझे पता है
तुम्हारे बिना मैं रह नहीं पाऊँगा
पर छोड़ जाना
मुझे और मेरी अक़्ल को अकेला
ठिकाने लगने के लिए

यक़ीन मानो मैं आ जाऊँगा रास्ते पर
फिर ढूँढता हुआ तुम्हें
तुम्हारे माँ की वही सितारों जड़ी साड़ी
उपहार में
देने के लिए ।