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सुनो लड़की! / सांत्वना श्रीकांत

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सुनो लड़की!
शक्लें छिपाए और
आँखें गड़ाए हुए
गिद्ध जैसे निशाना साधे
बैठे हैं कई लोग यहां।
तुम छुपना मत,
आँखें नीची मत करना,
दुपट्टा कहीं खिसका तो नहीं,
इसकी भी परवाह न करना,
सिर उठाना और
नीची कर देना उनकी आंखें
अपने तेज से।
ललचाएँगे, बहलाएँगे,
फुसलाएँगे और देंगे
धमकियां भी वो।
दरअसल ये भेड़िए नहीं
गीदड़ हैं,
उनकी हवस में गल मत जाना,
बेचारी मत बन जाना तुम।
सुनो लड़की!
हिम्मत रखना
क्योंकि फिर भी गलत
तुम ही कहलाओगी।
चुप रहना-
यह नसीहत भी दी जाएगी
तुम्हारा चरित्र धुँधला होगा,
यह बतलाया जाएगा।
यहां पौधों को भी
बौना रहने पर मजबूर
किया जाता है,
फिर बोनसाई बना कर सजाते हैं।
लेकिन सुनो लड़की!
तुम समर्पण मत करना,
रौंदा जाएगा, कुचला जाएगा
घृणित आँखों से तरेरा जाएगा,
फिर भी तुम
प्रस्फुटित होती रहना,
अंकुरित होती रहना।
इतिहास में नाम
तुम्हारा ही नाम दर्ज होगा,
पूजा भी तुमको जाएगा
डर है कि तुम
दम न तोड़ दो इससे पहले।
मालूम है मुझे,
तुम्हें इतिहास नहीं बनना,
तुम्हें पूज्य भी नही होना।
सामान्य जिंदगी चाहिए तुम्हें
जहाँ-
दहशत न हो अपनी देह
के नोचे जाने की,
फिक्र न हो दबोचकर
पर काटे जाने की,
जहाँ खिली रहे
तुम्हारी मुस्कुराहट
बिना इस डर के
कि-
तुम्हें चरित्रहीन कहा जाएगा।