भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सुनो लड़की / सतीश छींपा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सुनो लड़की
तुम्हारे बीज स्वप्न
बरसात के बाद ऊग आया हरापन
और ठण्डी सी काई
बहुत थोड़े शब्दों के लिए
तुम्हारी सांसे संगीत
नये मौसम सी खिलती मुस्कुराहट
इन कुछ ही दिनों में कैसे मुरझाने लगी है
सच कहूँ
छोड़ दो किताबें कुछ रोज
चलो साथ मेरे गाँव
जहाँ माँ की ओट
मिटा देती है सब पीड़ाएँ
सुबह बिलोणे के संगीत पर
थिरकता है घर
कुत्तर काटती मशीन पर
रहती है कुछ उम्मीद भरी निगाहें
चलो संग मेरे गाँव
बनसटियों में छिपकर
करेंगे प्यार
या चिड़िया का आलणा देखते
ले लूंगा
तुम्हारा चुम्बन
शर्माना कुछ क्षण
फिर मारने के लिए दौड़ना
खाना, माँ की अँगुलियों से चूंटिया
बुहार देना
आँगन में पड़ी चिन्ताएँ
फिर देखना
कई-कई मौसम
थिरक उठेंगे तुम्हारे गालों पर
हवाएँ मचलती सी आयेंगी
तुम्हारे सब्जे को छूने
लड़की-
तब तुम
प्रेम में होओगी।