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सुनो / हरिपाल त्यागी

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व्यर्थ मगजपच्ची करते हो यार!
नाहक सिर खपाते हो नक्शे में
वहां कहां ढूंढ़ पाओगे उसे
मिलेगी भी, तो बस, एक
दुबली-पतली मुड़वल-सी लकीर,
इतने बड़े नक्शे में नगण्य-सी
हां, चश्मा लगाओगे तो
लकीर कुछ और साफ हो जायेगी।

सुनो,
तुमने पढ़ी है नागार्जुन और
केदार की कविताएं?
वहीं मिलेगी तुम्हें केन नदी
यहीं मिलेगी तुम्हें केन!
व्यर्थ मगजपच्ची करते हो नक्शे में
नाहक ही आंखें गड़ाये हो कागज पर...