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सुबह का सूरज उतरा नहीं / निश्तर ख़ानक़ाही
Kavita Kosh से
ये भयानक रूप तो पहले कभी देखा नहीं
अब के तो पतझड़ में पेड़ों पर कोई पत्ता नहीं
वो कि अब जा भी चुका है मुझसे नाता तोड़कर
सोचता हूँ, मैंने उसका नाम तक पूछा नहीं
शहर के इक घर में इक नादान बच्चे को मुझे
छत से चिड़ियों को उड़ाने का समाँ भूला नहीं
रात के काले परिंदों, और कुछ पल सो रहो
सुबह का सूरज अभी दीवार पर उतरा नहीं
ऐसा लगता है कि आवाज़ की परछाई-सी
नक़्श है लेकिन मुझे वो नक़्श सा लगता नहीं
आज अपने आपसे मिलकर मैं ये सोचा किया
जैसा होना चाहिए था, आदमी वैसा नहीं
1- निशान