सुबह की चिन्ता / रणजीत साहा / सुभाष मुखोपाध्याय
दूध की गाड़ी के मोड़ पर चक्कर काटने के साथ ही,
पासवाले मकान की छत पर
सुन पड़ी मुर्गे की कुकडूँ...कूँ...
अन्धकार को ज़बरन पीछे घसीटते हुए
सुबह की पहली ट्राम
बस अब छूटने को ही है।
इसके बाद साइकिलें दौड़ती फिरेंगी
दोनों ओर घरों की बालकनी पर, छजजों पर
रेलिंग से लगे फूलों की टबों पर
घर के बरामदे पर
गाल पर तमाचे जड़ने की आवाज की तरह
गिरते रहेंगे ठस-ठस्स...
सुबह के अख़बार।
पिछली रात,
कमरे की खिड़की बन्द करते हुए मैं सोच रहा था
खेतों में तैयार खड़ी है धान की फ़सल
बड़ा अनर्थ होगा अगर बारिश हुई।
कैसा बीता कल का दिन
थोड़ी देर बाद छपी सुर्खियों से
गुज़रकर ही जान पाऊँगा।
लेकिन आज का दिन जो सामने खड़ा है
उसके मन में क्या है?
मैं अब तक जान नहीं पाया।
मैं, कसकर बाँध लेता हूँ मुट्ठी
और छोड़ देता हूँ ढीली
फिर कस लेता हूँ
और खोल देता हूँ।
मैं चाहता हूँ जैसा दिन
वह कैसे भी नहीं मिलता।