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सुबह की नीन्द / मंगलेश डबराल

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सुबह की नीन्द अच्छे-अच्छों को सुला देती है
अनिद्रा के शिकार लोग एक झपकी लेते हैं
और क़यामत उन्हें छुए बग़ैर गुज़र जाती है
सुबह की नीन्द कहती है —
कोई हड़बड़ी नहीं,
लोग वैसे ही रहेंगे, खाते और सोते हुए,
सोते और खाते हुए ।
तुम जो सारी रात जागते और रोते हुए
रोते और जागते हुए रहे हो,
तुम्हारे लिए थोड़ी सी मिठास ज़रूरी है ।

सुबह की नीन्द एक स्त्री है,
जिसे तुम अच्छी तरह नहीं जानते ।
वह आधी परिचित है, आधी अजनबी
वह बहुत दूर से आकर पहुँचती है तुम तक
किसी समुद्र से नाव की तरह
वही है, जो कहती है —
आओ, प्रेम की महान बेखुदी की शरण में आओ,
एक पहाड़ की निबिड़ शान्ति के भीतर आओ,
उस दिशा में जाओ,
जहाँ जा रहा है पीली तितलियों का झुण्ड

सुबह की नीन्द का स्वाद नहीं जानते,
अत्याचारी-अन्यायी लोग
वे कहते हैं — हम ब्राह्म मुहूर्त में उठ जाते हैं,
कसरत करते हैं । देखो, छप्पन इँच का हमारा सीना,
फिर हम देर तक पूजा-अर्चना में बैठते हैं,
इसी बीच तय कर लेते हैं
कि क्या-क्या काम निपटाने हैं आज

सुबह की नीन्द आती है
दुनिया के कामकाज लाँघती हुई
ट्रेनें जा चुकी हैं, हवाई जहाज़ उड़ चुके हैं
सभाएँ-गोष्ठियाँ शुरू हो चुकी हैं
और तुम कहीं के लिए भी कम नहीं पड़े हो ।
जब बाहर दुनिया चल रही होती है,
लोग आते और जाते हैं एक स्वार्थ से दूसरे स्वार्थ तक
सुबह की नींद गिरती है तुम्हारे अँगों पर
जैसे दिन भर तपे हुए पेड़ की पत्तियों पर ओस ।