मैं जगा देता हूँ कार को 
जिसकी विंडशील्ड पर 
एक परत जमा हो गई है पराग की.
चढ़ा लेता हूँ अपना धूप का चश्मा   
और गाढ़ा हो जाता है पंछियों का गीत.
ठीक उसी समय रेलवे स्टेशन पर 
एक दूसरा शख्स खरीदता है अखबार 
एक बड़ी सी माल गाड़ी के पास 
जो पूरी लाल हो गई है जंग से 
और झिलमिलाती हुई खड़ी है धूप में.
कहीं कोई खाली जगह नहीं है यहाँ.
सीधा बसंत की गर्माहट से होता हुआ एक सर्द गलियारा
कोई दौड़ते हुए आता है वहां 
और बताता है कि कैसे ऊपर मुख्यालय में 
उन्होंने अपमान किया है उसका.
भूदृश्य के पिछले दरवाजे से 
उड़ते हुए आती है 
श्वेत-श्याम चिड़िया मुटरी.  
और इधर-उधर फुदकती रहती है श्यामा चिड़िया 
हर चीज हो जाती है जैसे कोयले से बना चित्र 
सिवाय तार पर सूखते सफ़ेद कपड़ों के 
संगीतकार पलेसत्रिना के समूहगान की तरह.
कहीं कोई खाली जगह नहीं है यहाँ.
अद्भुत है महसूस करना अपनी कविता को फैलते हुए 
जबकि सिकुड़ रहा होता हूँ खुद मैं.
वह फैलती जाती है और जगह ले लेती है मेरी 
कर देती है किनारे,  
घोंसले के बाहर फेंक देती है मुझे 
और तैयार हो जाती है कविता. 
(अनुवाद : मनोज पटेल)