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सुबह से घिरने लगी है रात / राम सेंगर
Kavita Kosh से
रास्ते गो खुले सारे
बात बनती ही न कोई बात ।
सतत क्रम में
ख़ुशी आती ही न दीखी
तन्त्रबाधा ने बिगाड़े खेल ।
जी रहे हैं
पक्ष का प्रतिरोध लेकर
निकलना बाक़ी रहा है तेल ।
चले चक्की विषमता की
आदमी की दाँव पर औक़ात ।
जीभ खींचीं
दिमागों में ज़हर बोया
अकड़बू का
हिंस्र चौपट राग ।
ढोंग,
महिमामण्डितों की
दबी रग है
आग से
जो खेलते हैं फाग ।
हाल ही बेहाल सारा
सुबह से घिरने लगी है रात ।
रास्ते गो खुले सारे
बात, बनती ही न कोई बात ।