सुबह होने पर / त्रिपुरारि कुमार शर्मा
मेरी एक आँख में रात अभी सोई है
दुसरी आँख में सुबह सुगबुगाने लगी
सुहागरात से जगी हो मेरी नींद जैसे
मैनें देखा है यहाँ पर आकर
दूर तक पसरा हुआ वादी-ए-कुल्लू
जैसे मेरे चेहरे पर तुम्हारा गेसू
जैसे मेरे बदन में तुम्हारी खुशबू
बड़े गौर से देखा है इन पहाड़ों में
हर दरख़्त की लचकती हुई हर डाली
भीगे लब पर एक प्यासी तमन्ना लेकर
मेरी खुली हुई बाहों में आना चाहती है
तुम्हारी ही तरह टूट जाना चाहती है
बहुत करीब से छूआ है इन पहाड़ों को
बहुत ही सख़्त बदन है इनका
और छूओ तो बर्फ की तरह
एक पल में पिघल से जाते हैं
एक पल औन्धे मुंह गिरता है
सर पटकता हुआ पत्थर पर ठण्डा पानी
नज़र को चीरते हुए ये चीड़ के दरख़्त
मेरी हथेली पर तेरी तक़दीर के दरख़्त
अचानक से उगने लगते हैं
गर्म बोसों की कोई बौछार हो जैसे
पहली तारीख का बाज़ार हो जैसे
मैं व्यास की सतह पर बहने लगता हूँ...