भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सुबह / परवीन शाकिर
Kavita Kosh से
{{KKRachna |रचनाकार=परवीन शाकिर |संग्रह=
सुबह ए विसाल की पौ फटती है
चारों ओर
मदमाती भोर की नीली हुई ठंडक फैल रही है
शगुन का पहला परिंदा
मुंडेर पर आकर
अभी-अभी बैठा है
सब्ज़ किवाड़ों के पीछे एक सुर्ख़ कली मुस्काई
पाज़ेबों की गूंज फज़ा में लहराई
कच्चे रंगों की साड़ी में
गीले बाल छुपाए गोरी
घर सा सारा बाजरा आँगन में ले आई