भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सुब्ह सवेरे अपने कमरे में जो देखा चाँद / आलोक यादव
Kavita Kosh से
सुब्ह सवेरे अपने कमरे में जो देखा चाँद
आधा जागा, आधा सोया, आँखें मलता चाँद
बाँध सितारों का गजरा इतराता रहता चाँद
छत- आँगन में फिरता रहता बहका- बहका चाँद
तेरे रूप की उपमा मैं उसको दे तो देता
होता जो थोड़ा भी तेरे मुखड़े जैसा चाँद
कितने प्रेमी हर दिन झूठी शान की भेंट चढ़े
खापों - पंचों के निर्णय से सहमा - सहमा चाँद
चंचल चितवन, मंद हास की किरणें बिखराता
मेरे घर, मेरे आँगन में मेरा अपना चाँद
आख़िरकार पुरुष ही ठहरा हरजाई आकाश
अपने चाँद की तुलना करता देख के मेरा चाँद
साँझ ढली, पंछी लौटे, चल तू भी घर 'आलोक'
बैठ झरोखे कब से देखे तेरा रस्ता चाँद