सुरलोक के नृत्य-उत्सव में / रवीन्द्रनाथ ठाकुर
सुरलोक के नृत्य-उत्सव में
यदि क्षण-भर के लिए
क्लान्त-श्रान्त ऊर्वशी से
होता कहीं ताल-भंग
देवराज करते नहीं मार्जना।
पूर्वार्जित कीर्ति उसकी
अभिशाप तले होती निर्वासित।
आकस्मिक त्रुटि को भी न करता कभी स्वर्ग स्वीकार।
मानव के सभा-अंगन में
वहाँ भी जाग रहा स्वर्ग का न्याय-विचार।
इसी से मेरी काव्य-कला हो रही कुण्ठित है
ताप-तप्त दिनान्त के अवसाद से;
डर है, हो न कहीं शैथिल्य उसके पदक्षेप-ताल में।
ख्याति मुक्त वाणी मेरी
महेन्द्र के चरणों में करता हूं समर्पण
निरासक्त मन से जा सकूं, बस, यही चाह है,
वैरागी रहे वह सूर्यास्त के गेरूआ प्रकाश में;
निर्मम भविष्य है, जानता हूं, असावधानी में दस्यु-वृत्ति करता है
कीर्ति के संचय में-
आज उसकी होती है तो होने दो प्रथम सूचना।
‘उदयन’: शान्ति निकेतन
प्रभात: 27 नवम्बर, 1940