भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सुलगती आँच का मन्ज़र है ज़रा ग़ौर करो / उत्कर्ष अग्निहोत्री
Kavita Kosh से
सुलगती आँच का मन्ज़र है ज़रा ग़ौर करो,
ये हम सभी का मुकद्दर है ज़रा ग़ौर करो।
इधर जले है दिया खूब अपनी हिम्मत से,
उधर हवा का बवन्डर है ज़रा ग़ौर करो।
दो-चार शेर कहे और तड़प उट्ठे तुम,
यहाँ ग़मों का समन्दर है ज़रा ग़ौर करो।
कभी गलीचों पे चलती थी ग़ज़ल नाज़ुक जो,
मरुस्थलों के सफ़र पर है ज़रा ग़ौर करो।
लिए तो आए हो तुम आइना ‘उत्कर्ष’ मगर,
सभी के हाथ में पत्थर है ज़रा गौर करो।