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सुलगना अंदर अंदर मिस्रा-ए-तर सोचते रहना / 'फ़ज़ा' इब्न-ए-फ़ैज़ी
Kavita Kosh से
सुलगना अंदर अंदर मिस्रा-ए-तर सोचते रहना
बदन पर डाल ज़ख़्मों की चादर सोचते रहना
नहीं कम जाँ-गुसल ये मरहला भी ख़ुद-शनासी का
के अपने ही मआनी लफ़्ज़ बन कर सोचते रहना
ज़बाँ से कुछ न कहना बा-वजूद-ए-ताब-गोयाई
खुली आँखों से बस मंज़र ब मंज़र सोचते रहना
किसी लम्हे तो ख़ुद से ला-तअल्लुक़ भी रहा लोगो
मसाइल कम नहीं फिर ज़िंदगी भी सोचते रहना
चराग़-ए-ज़िंदगी है या बिसात-ए-आतिश-ए-रफ़्ता
जला कर रौशनी दहलीज़-ए-जाँ पर सोचते रहना
अजब शय है ‘फ़ज़ा’ ज़हन ओ नज़र की ये असीरी भी
मुसलसल देखते रहना बराबर सोचते रहना