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सुलग रहा है ये अपना वतन ज़रा सोचो / अनिरुद्ध सिन्हा
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सुलग रहा है ये अपना वतन ज़रा सोचो
लगी है आज ये कैसी अगन ज़रा सोचो
किसी की कोई ख़बर ही कहाँ है अब उनको
ये हुक़्मरान हैं कितने मगन ज़रा सोचो
कहीं से आज ख़ुशी की ख़बर नहीं आती
उदास रात की जैसी घुटन ज़रा सोचो
नए ज़माने के फ़ैशन में ढल गई है अब
पुराने दौर का छूटा चलन ज़रा सोचो
ग़ज़ब तो ये है परिन्दा नज़र नहीं आता
उजड़ रहा है गुलों का चमन ज़रा सोचो