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सूखी सरिता / विमल राजस्थानी

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शैल की गोद छोड़ साँवली, बावली बनी मचलती चली

मिली मुझको पथरीली राह
राह में चट्टानों की भीड़
मिल लघु-तरू, कुछ घने विशाल
कि जिनमें जड़े पड़े थे नीड़
शिला को फोड़, राह को मोड़, तटों को तोड़ उमड़ती चली

कणों में परिवर्तित कर शिला
धवल मेरा अंतस्तल खिला
वेग से मेरे पर्वत हिला
और मुझको अतिशय सुख मिला
जवानी का जल रहा प्रदीप, तिमिर को चीर चमकती चली

शैल के धोकर श्यामल चरण
धरा के वक्षस्थल को चूम
चली मैं बल खा-खाकर झूम
मची मेरे यौवन की धूम
कूल-बाँहों में तन को डाल, उफनती चली, मचलती चली

थकी लहरों को तट पर डाल
चली इतराती मेरी चाल
निरख कर मुझमें निज प्रतिबिम्ब
चन्द्र औ’ तारे हुए निहाल
गोद में शिशु-सा नीला गगन सुला कर खिली हृदय की कली

लुटाती पल-पल पर उल्लास
चली मैं उदधि-पिया के पास
निकट ज्यौं-ज्यौं आते थे पिया
जवानी की जलती थी प्यास
किन्तु फूटा था मेरा भाग्य, खोज मैं थकी पिया की गली

सूखती चली इधर मैं और
उधर है दूर पिया का देश
कभी आयेगी ऐसी घड़ी
रहेंगे चिह्न लहर के शेष
कहेगी दुनिया जिनको देख-बावली गयी पिया से छली
कहेगी दुनिया जिनको देख-अभागी विरहानल में जली