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सूखे सराब / रेशमा हिंगोरानी
Kavita Kosh से
मैं जानती हूँ ग़म की इन्तिहा नहीं होती,
मुझे उम्र-ए-दराज़-ए-दर्द का है इल्म ज़रा,
बस कि बार-ए-गराँ का मैंने किया ज़िक्र नहीं,
ज़माना सोचने लगा अलम से हूँ मैं परे !
वो बदगुमानी-ए-जहाँ,
ये हकीकत मेरी,
कि अश्क़ भी मेरे,
दिल को ही बस भिगोया किए,
और सूखा रहा दामन,
जो लपेटे मुझको...
एक बेरंग...
तार-तार सा...
दामन मेरा...
अप्रैल 1997