भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सूखे सराब / रेशमा हिंगोरानी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैं जानती हूँ ग़म की इन्तिहा नहीं होती,
मुझे उम्र-ए-दराज़-ए-दर्द का है इल्म ज़रा,

बस कि बार-ए-गराँ का मैंने किया ज़िक्र नहीं,
ज़माना सोचने लगा अलम से हूँ मैं परे !

वो बदगुमानी-ए-जहाँ,
ये हकीकत मेरी,
कि अश्क़ भी मेरे,
दिल को ही बस भिगोया किए,

और सूखा रहा दामन,
जो लपेटे मुझको...
एक बेरंग...
तार-तार सा...
दामन मेरा...

अप्रैल 1997