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सूरज का गोला जब सिंधु में पिघलता है / रंजना वर्मा
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सूरज का गोला जब सिन्धु में पिघलता है
रोज शाम ढलते ही चन्द्रमा निकलता है
अपने कब लोग हुए ठेल कर निकल जाते
पग सँभाल रखता जो वो नहीं फिसलता है
लोग कह गये हैं कब इश्क़ की डगर आसां
पाँव जो बढ़ाता है आग पर वो चलता है
रात है घनी काली डर न तू अँधेरों से
दीप एक बुझता है तो नवीन जलता है
झेलना जरूरी है वर्तमान की पीड़ा
ख़्वाब के खिलौनों से दिल नहीं बहलता है
एक बार किस्मत भी द्वार खोल है देती
हर किसी को ये मौका रोज़ कहाँ मिलता है
जो नसीब से पाया व्यर्थ मत गंवा देना
वक्त का भरोसा क्या करवटें बदलता है