सूरज निकल रहा है / विनोद पाराशर
सूरज निकल रहा हॆ
ऒर तुम
सो रहे हो.
स्वपनों की दुनिया में
कहां खो रहे हो.
स्वपन सिर्फ स्वपन होते हे.
सुनहरे स्वपन
रुपहले स्वपन
मीठे-मीठे
जहरीले स्वपन.
ओ भईया! कपडा बनाने वाले
ओ भईया! अनाज उपजाने वाले
अरे ओ बाबू! दफ्तर को जाने वाले
जरा आंखें खोलो तो
ये खिडकी,दरवाजे खोलो तो
देखो बाहर-
लाल-लाल सूरज
कॆसे निकल रहा हॆ?
पहाडियों के पीछे से
वह धीरे-धीरे
हमारी ओर बढ रहा हॆ.
झरनों की कल-कल
पंछियों का कलरव
कॆसे तत्पर हॆं-
उगते हुए सूर्य का
स्वागत करने को.
उठो! तुंम भी उठो!
ऎ मेरे कवि-मित्र!
सूर्य की रोशनी
देहली पर दस्तक दे रही हॆ
ओर तुंम-
अभी तक
सो रहे हो.
न जाने -
कल्पना की
किस दुनिया में
खो रहे हो.
तुमसे तो नहीं थी
ऎसी उम्मीद
आओ! मेरे साथ आओ
यथार्थ के घरातल पर आओ
नव-जागरण के गीत गाओ.