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सूरज में गरमी ना हो / शार्दुला नोगजा
Kavita Kosh से
सूरज में गरमी ना हो
तो आशा की चादर बुनो
अपनी हँसी को नहीं
ज़ख़्मों को अपने ढको।
देरी करोगे अगर
दिन आगे निकल जाएगा
मिट्टी में बोएगा जो
वो ही फसल पाएगा।
ये बच्चे जो राहों में हैं
समय की अमानत हैं ये
बिखरे जो ये टूट कर
गुलिस्ताँ पे लानत है ये।
बोली को जुबाँ से नहीं
दिल से निकल आने दो
जो जाता है सब छोड़ कर
उसको रोको ना तुम जाने दो।
सूरज में गरमी ना हो
तो आशा की चादर बुनो
जो तेरा है लौट आएगा
उसकी राहों से काँटें चुनो।