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सूरज / विजयदेव नारायण साही
Kavita Kosh से
साधो तुमको विश्वास नहीं होगा
रोज़ सवेरे अभी भी सूरज निकलता है
गोल-गोल, लाल-लाल
उसकी बड़ी-बड़ी आँखें हैं
फूले-फूले गाल
और भोला-सा मुँह
मेरे जी में आता है
उसे गोद में ले लूँ
और स्याही से उसकी मूँछें बनाऊँ।
सारी दुनिया तो उसके ताप से
जल रही है
साधो भाई
मैं अपना यह वत्सल भाव
किसको सुनाऊँ?