भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सूरत-ए-ज़ख़्म-ए-दिल-ओ-दर्द-ए-जिगर आता है / सरवर आलम राज़ ‘सरवर’

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सूरत-ए-ज़ख़्म-ए-दिल-ओ-दर्द-ए-जिगर आता है
वो मिरे पास ब-अन्दाज़-ए-दिगर आता है!

दिल सर-ए-बज़्म-ए-खु़दी ख़ाक-ब-सर आता है!
सुब्ह का भूला हुआ शाम को घर आता है!

ये बता दे वो तिरी याद का झोंका तो नहीं?
गुल-बदामाँ जो सर-ए-शाम-ओ-सहर आता है

ज़िन्दगी बीत गई शिकवा-ए-हिज्राँ करते
देखिए कब हमें जीने का हुनर आता है!

सुब्ह से दिल को ये धड़का सा लगा रहता है
नामाबर देखिये क्या ले के ख़बर आता है

मंज़िल-ए-ग़म में मुझे इतने हुए हैं धोखे
तुझ से अब आंख मिलाते हुए डर आता है

बेख़ुदी बन गई तम्हीद खु़द-आगाही के!
एक मुद्दत में ये अन्दाज़-ए-नज़र आता है!

"सरवर" इतना भी तू हालात से मायूस न हो
आते आते ही दुआओं में असर आता है!