भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सूर्यास्त / फ़्रेडरिक होल्डरलिन
Kavita Kosh से
कहाँ हो तुम ?
अभी भी शेष
इस द्वाभा की दिप्तिमयी चमक के भीतर से
तुम्हारा आनन्द
मेरी आत्मा को भर देता है ;
क्योंकि अभी सुना है मैंने
उत्कण्ठित हो :
कैसे भर गया है
सूरज के प्रकाश का
हर्ष से उन्मत्त कर देने वाला यौवन
सुवर्णिम झंकारों से
अपनी स्वर्गिक बीन पर
बजाया है उसने गोधूलि का गीत ;
वाण-पंक्तियों और पहाड़ियों के आर-पार
चहुँ ओर
वह हुआ है अनुगुंजित
पर दूर, बहुत दूर
जहाँ उपासक हैं
जहाँ लोग अब भी कर रहे हैं
उसका स्तवन
वहाँ से वह हो गया है
अस्तमित ।