भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सेमल की रुई / अमित कुमार अम्बष्ट 'आमिली'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

वो होंठों पर
लाली नहीं लगाती,
लिपिस्टिक की नोंक पर
रगड़ देती हैं अपना थूथना!
जूड़े में वासना का बेला बाँधकर
किसी सड़क के किनारे,
या फिर मंडी के बाहर
खड़ी रहती हैं
वर्षों पहले सूख गए
वृक्ष की लाश के मानिंद!
क्या पता शिकार करने
या फिर होने की तालाश में!
उनकी आँखों में
सिर्फ पुतलियाँ नहीं
तेज-धार बंसी जड़ी होती है-
मछलियाँ पकड़नेवाली
जिससे वह कर लेती हैं बड़े-से-बड़े
सफेदपोश जानवर का शिकार,
वो रोज नहाती भी नहीं हैं
पर उनके जिस्म से
बदबू नहीं आती कभी!
वो सेमल की रुई की तरह
हल्की भी होती हैं,
तौल दी जाती हैं
चंद सिक्कों के एवज़ में
और हर रोज धुनी भी जाती हैं
बिस्तर गर्म करने के लिए!