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सेवा के कुछ फूलों में हम / 'सज्जन' धर्मेन्द्र
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सेवा के कुछ फूलों में हम
मन की महक मिलाएँ
भारत माँ का घर जर्जर है
सब मिल पुनः बनाएँ
फिर बेघर कर मज़्लूमों को
बीत रही बरसात
दबे पाँव आता है जाड़ा
करने उनपर घात
और न कुछ तो
एक पुराना वस्त्र उन्हें दे आएँ
हुए अधमरे-अधनंगे जो
उनके प्राण बचाएँ
मंदिर-मस्जिद जो भी टूटा
टूटीं भारत माँ ही
चाहे जिसका सर फूटा हो
रोई तो ममता ही
मंदिर एक हाथ से
दूजे से मस्जिद बनवाएँ
अब तक लहू बहाया हमने
अब मिल स्वेद बहाएँ